क्या शिवराज सिंह चौहान अब उमा भारती और कल्याण सिंह के रास्ते पर चल पड़े हैं?
कहा जाता है कि बड़ी पार्टियों के नेताओं का जब अपनी पार्टी से मोहभंग होता है उसके बाद वे कहीं के नहीं होते हैं. ये बात आज बीजेपी के असंतुष्ट नेताओं के लिए उतना ही सत्य है जितना कभी कांग्रेस के असंतुष्टों के लिए हुआ करती थी.बात हो रही है शिवराज सिंह चौहान की.
चौहान ने 4 बार मध्यप्रदेश के सीएम की शपथ ली, पर 5वीं बार सीएम न बन पाने का मलाल उन्हें पार्टी से इस कदर दूर कर रहा है जितना किसी ने सोचा नहीं था . जिस तरह की पोस्ट आजकल वो सोशल मीडिया पर डाल रहे हैं उससे तो यही लगता है कि अब वो बगावत के मूड में हैं.आज वो जिस रस्ते पर हैं उसी रास्ते चलकर कभी मध्य प्रदेश की पूर्व सीएम उमा भारती और उत्तर प्रदेश के पूर्व सीएम कल्याण सिंह कहीं के नहीं हुए थे.तो क्या मध्यप्रदेश बीजेपी का इतिहास अपने को रिपीट कर रहा है. काफी कुछ घटनाक्रम वैसे ही घट रहा है जिस तरह उमा भारती और कल्याण सिंह से सत्ता छिनने के बाद हुआ मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश की राजनीति में हुआ था.
मोहन यादव के सीएम बनने के बाद शिवराज की छटपटाहट
मध्यप्रदेश के सीएम पद जाने के बाद शिवराज उसी तरह बेचैन हैं जिस तरह उमा भारती आज 19 सालों बाद भी सीएम की कुर्सी हाथ से निकल जाने के गम में तड़पती रहती हैं. आए दिन किसी सभा में या मीडिया से बात करते हुए उनका गम छलक कर बाहर आ जाता है. उमाभारती तो केवल एक साल ही उस कुर्सी पर बैठीं थी, शिवराज ने तो 18 साल उस कुर्सी का भोग किया है तो जाहिर है पीड़ा भी उससे कहीं ज्यादा ही होगा. उमा भारती कुर्सी छिनने के बाद कहती थीं उनका बच्चा छीन लिया गया.वो हमेशा इसी गुमान में रहीं कि मध्यप्रदेश में बीजेपी की सरकार बनाने में केवल उनका ही योगदान रहा.
इसलिए मध्यप्रदेश की सीएम की कुर्सी को वो अपना बच्चा समझतीं थीं. अब लाडली बहनों को लेकर कुछ ऐसा ही शिवराज भी रोना रो रहे हैं. बार-बार अपने समर्थक रोती हुई महिलाओं के साथ विडियो रिलीज करना हो या ट्रैक्टर चलाते हुए भावुक संदेश देना हो , उनके सभी कृत्य उमाभारती के बगावत की याद दिला दे रहे हैं.
मध्यप्रदेश की राजनीति के जानकार वरिष्ठ पत्रकार दिनेश गुप्ता कहते हैं कि शिवराज अभी भी प्रेशर पॉलिटिक्स खेल रहे हैं. बहुत पहले पार्टी के न चाहने पर भी वो विक्रम वर्मा के खिलाफ प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव लड़े थे. वह भी एक किस्म का उनका प्रेशर पॉलिटिक्स ही था और उसका उन्होंने फायदा भी उठाया . पर अब यह दूसरा दौर है. गुप्ता कहते हैं कि शिवराज को समझना चाहिए कि जब चुनाव उनके नाम पर लड़ा ही नया गया तो विवाद किस बात का? चुनाव प्रचार के दौरान बार बार बीजेपी नेता कहते रहे कि कौन मुख्यमंत्री होगा अभी तय नहीं है इसके बावजूद वो लाडली बहना योजना में मिलने वाली राशि को बढ़ाने का वादा करते रहे. चुनावों के दौरान और उसके बाद भी वो लगातार प्रेशर पॉलिटिक्स कर रहे हैं . पार्टी के उपाध्यक्ष पद पर वे हैं ही. पार्टी के अगले कदम का इंतजार किए बिना बार-बार बगावत वाले सुर दिखाना उन्हे उमा भारती के रास्ते पर ले जा रहा है.
उमा भारती का किस्सा
मध्यप्रदेश में 2003 के विधानसभा चुनावों में उमाभारती के नेतृत्व में भाजपा ने तीन-चौथाई बहुमत प्राप्त किया और वे मुख्यमंत्री बनीं. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि भाजपा को सत्तारूढ़ करने में उमा भारती ने महती भूमिका निभाई थी.कुछ उमा भारती का दुर्भाग्य, कुछ उनका बड़बोलापन और केंद्र से रिश्तों में दरार कि अगस्त 2004 में उमा भारती को मात्र 9 महीने बाद ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा.
उमा भारती के खिलाफ 1994 के हुबली दंगों के सम्बन्ध में गिरफ्तारी वारंट जारी हुआ था और नैतिकता कहती थी कि वे इस्तीफा दें. पार्टी आलाकमान से रिश्ते में तल्खी इतनी बढ़ चुकी थी कि उन्हें अदालती फैसला आने के बाद भी मुख्यमंत्री पद वापस नहीं मिला.
स्वभाव से उग्र उमा भारती को नवम्बर 2004 में भरी बैठक में लालकृष्ण आडवाणी की आलोचना करने के बाद भाजपा से बर्खास्त कर दिया गया. 2005 में उमा भारती की बहाली तो हो गयी पर पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के बजाय उनके प्रतिद्वंद्वी शिवराज सिंह चौहान को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया. इस अपमान को वो बर्दाश्त नहीं कर सकीं और भाजपा से अलग हो गईं. उन्होंने भारतीय जनशक्ति पार्टी नाम से एक अलग पार्टी बना ली. पर 2008 के विधानसभा चुनावों में उन्हें निराशा हाथ लगी.
पार्टी में उनकी तीसरी बार वापसी 7 जून 2011 को हुई. लेकिन अब उनकी कार्यभूमि मध्यप्रदेश के बजाय उत्तर प्रदेश हो चुका था. उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने ‘गंगा बचाओ’ अभियान शुरू किया. पार्टी ने मार्च 2012 में उन्हें उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में महोबा जिले की चरखारी सीट से लड़ाया . वो विधायक बनीं पर 2014 में वो झांसी से लोकसभा सांसद चुनी गईं और उन्हें मोदी मंत्रिमंडल में जगह मिल गई.जल संसाधन, नदी विकास और गंगा सफाई मंत्री जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय में उनकी लापरवाह कार्यशैली पीएम मोदी को पसंद नहीं आई और जल्द ही उन्हें मंत्रिमंडल से हटा दिया गया.
कल्याण सिंह का किस्सा
बात 1999 की है जब एनडीए के दम पर अटल बिहारी वाजपेयी 10 अक्टूबर 1999 को प्रधानमंत्री बनने में कामयाब हुए. यूपी में वाजपेयी के करीबी नेता खुलकर यूपी के सीएम कल्याण सिंह के खिलाफ षडयंत्र कर रहे थे. कल्याण सिंह को लग रहा था कि उन्हें पद से हटाने का मोर्चा जिन नेताओं ने खोल रखा है, उन्हें वाजपेयी की शह मिल रही है. कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए बीजेपी के तमाम बड़े नेता एकजुट हो गए. 12 नवंबर 1999 को उन्होंने इस्तीफा दिया और उनकी जगह रामप्रकाश गुप्त को मुख्यमंत्री बनाया गया. कल्याण सिंह को भी यही लगता था कि बाबरी मस्जिद गिरवाकर बीजेपी के पोस्टर बॉय बन चुके हैं. उनके बिना पार्टी कैसे चलेगी. मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद वो अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर बहुत दिनों तक सहज नहीं रह पाए और सार्वजनिक रूप से बयानबाजी शुरू कर दी.और जल्द ही उन्हें पार्टी का बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
इसके बाद कल्याण सिंह ने अपने समर्थकों के साथ मिलकर राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का गठन किया. साल 2002 में उन्हें अपनी औकात पता चल गई. कुल विधानसभा की चार सीटें ही उनकी पार्टी जीत सकी. 2004 में वाजपेयी उन्हें दोबारा से बीजेपी में ले आए. 2007 में सीएम का चेहरा बनकर भी पार्टी के वे किसी काम नहीं आ सके. कल्याण सिंह का फिर बीजेपी से मोहभंग हुआ और उन्होंने 2009 में पार्टी छोड़ दी. फिर सपा के साथ हो लिए पर उनकी दाल नहीं गली. मुलायम सिंह यादव ने बाद में कहा भी कि कल्याण सिंह से हाथ मिलाना मेरी सबसे बड़ी गलती थी. परिस्थितियां बदलीं और कल्याण सिंह ने 2014 में फिर से बीजेपी में वापसी की और कसम खाई कि जिंदगी की आखिरी सांस तक अब बीजेपी का रहूंगा. जीवन के अंतिम समय में उन्हे राजस्थान का राज्यपाल बनने का भी सौभाग्य मिल गया और यूपी की राजनीति में बेटे और पोते को भी सेट कर दिया.
उमा भारती और कल्याण सिंह से कितने अलग हैं शिवराज
राजनीतिक विश्वेषकों का कहना है कि शिवराज चौहान का मामला अलग है. उमा भारती और कल्याण सिंह के मुकबले शिवराज फूंक फूंक कर कदम रखने वाले शख्स हैं. पर उसी तरह एक बात यह भी है कि उमा भारती का मुकाबला तबकी बीजेपी के उन नेताओं से था जिन्हें आज के जैसा प्रचंड बहुमत नहीं था. राजनीति का वो दौर भी अलग था. अटल और आडवाणी की कार्यशैली भी अलग थी. आज शिवराज सिंह चौहान के भविष्य का फैसला नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर है. जो फैसले लेने में कोई भी इफ और बट नहीं देखते.