छत्तीसगढ़ का रामनामी समुदाय: शरीर के हर हिस्से पर राम का नाम लेकिन बाकी ‘भक्तों’ से हैं अलग
छत्तीसगढ़ में कसडोल के रहने वाले गुलाराम रामनामी, इन दिनों ‘बड़े भजन मेला’ की तैयारी में व्यस्त हैं.
पिछले सौ सालों से भी अधिक समय से, महानदी के किनारे हर साल तीन दिनों का, अपनी तरह का यह अनूठा भजन मेला लगता है. इस साल 21 से 23 जनवरी तक इस मेले का आयोजन किया जा रहा है.
गुलाराम रामनामी कहते हैं,“इस मेले में तीनों दिन, हज़ारों लोग अलग-अलग और सामूहिक रुप से रामायण का पाठ करते हैं. समझ लीजिए कि पूरा राममय माहौल रहता है. सुना है कि इसी तारीख़ को अयोध्या के राम मंदिर में भी प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन है.”
असल में गुलाराम छत्तीसगढ़ के उस रामनामी समुदाय से आते हैं, जिसकी पहचान पूरी देह पर राम-राम के स्थाई गोदना या टैटू के कारण है. राम-राम का यह गोदना उनके सिर से लेकर पैर तक शरीर के हर हिस्से में गुदवाया जाता है.
इस समुदाय में सुबह के अभिवादन से लेकर हर काम की शुरुआत राम-राम से होती है.
मूर्ति पूजा में आस्था नहीं रखने वाले रामनामी समुदाय के पास, राम के निर्गुण स्वरूप की आराधना के सुंदर भजन हैं, जिनमें मानस की चौपाइयां भी शामिल हैं.
राम भक्ति का केंद्र छत्तीसगढ़
रामनामी समुदाय के लोग
मध्य भारत में निर्गुण भक्ति के तीन बड़े आंदोलन माने जाते हैं, जिसका केंद्र छत्तीसगढ़ बना रहा. इन तीनों ही आंदोलनों में ज्यादातर समाज का वह वर्ग जुड़ा, जिसे तब कथित रूप से अछूत माना जाता था.
मध्य प्रदेश के बांधवगढ़ के रहने वाले शिष्य गुरु धरमदास और उनके बेटे गुरु चुरामनदास को मध्य भारत में कबीर पंथ के प्रचार-प्रसार और उसे स्थापित करने का श्रेय जाता है.
छत्तीसगढ़ के दामाखेड़ा में कबीरपंथियों का विशाल आश्रम है. कबीरधाम ज़िले में भी कबीरपंथी समाज का एक बड़ा केंद्र है. छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ को मानने वालों की संख्या लाखों में है.
इसी तरह कबीर के ही शिष्य जीवनदास की ओर से16वीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश में सतनाम पंथ की स्थापना के प्रमाण मिलते हैं.
हालांकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि दादू दयाल के शिष्य जगजीवन दास ने सत्रहवीं शताब्दी में सतनाम पंथ की स्थापना की थी. लेकिन छत्तीसगढ़ में 1820 के आसपास बाबा गुरुघासीदास ने सतनाम पंथ की स्थापना की.
कबीरपंथ और सतनामी समाज की स्थापना के आसपास ही कहा जाता है कि अछूत कह कर मंदिर में प्रवेश करने से मना करने पर परशुराम नामक युवा ने माथे पर राम-राम गुदवा कर इस रामनामी संप्रदाय की शुरुआत की.
हालांकि रामनामी संप्रदाय के कुछ बुजुर्ग बताते हैं कि 19वीं शताब्दी के मध्य में जांजगीर-चांपा ज़िले के चारपारा गांव में पैदा हुए परशुराम ने पिता के प्रभाव में मानस का पाठ करना सीखा लेकिन 30 की उम्र के होते-होते उन्हें कोई चर्म रोग हो गया.
उसी दौरान एक रामानंदी साधु रामदेव के संपर्क में आने से उनका रोग भी ख़त्म हुआ और उनकी छाती पर राम-राम का गोदना स्वतः उभर आया. इसके बाद से उन्होंने राम-राम के नाम के जाप को प्रचारित-प्रसारित करना शुरू किया.
कहते हैं कि उनके प्रभाव में आ कर गांव के कुछ लोगों ने अपने माथे पर राम-राम गुदवा लिया और खेती-बाड़ी के अलावा बचे हुए समय में मंडलियों में राम-राम का भजन करना शुरू किया.
इन लोगों ने दूसरे साधुओं की तरह शाकाहारी भोजन करना शुरू किया और शराब का सेवन भी बंद कर दिया. रामनामी संप्रदाय की यह शुरुआत 1870 के आसपास हुई.
इस संप्रदाय के लोगों ने अपने कपड़ों पर भी राम-नाम लिखना शुरू किया. चादर, गमछा, ओढ़नी… सब जगह राम-राम लिखने की परंपरा शुरू हुई.
रामनामी समुदाय के चैतराम कहते हैं, “हमारे बाबा बताते थे कि माथे पर और देह पर राम-राम लिखे होने से नाराज़ कई लोगों ने रामनामियों पर हमले किए, उनके राम-राम लिखे गोदना को मिटाने के लिए गरम सलाखों से दागा गया, कपड़ों को आग के हवाले कर दिया गया. लेकिन राम-राम को कोई हमारे ह्रदय से भला कैसे मिटाता?”
प्रतिरोध स्वरुप, इसके बाद पूरे शरीर पर राम-राम का स्थाई गोदना गुदवाने की परंपरा शुरू हुई.
रामायण से साक्षरता
गुलाराम रामनामी बताते हैं, ” तब के समाज में जो वर्ण व्यवस्था थी, उसमें कथित शूद्रों को मंदिर में प्रवेश का अधिकार नहीं था, राम नाम जपने का अधिकार तक नहीं था.”
”रामनामी समुदाय की शुरुआत के बाद हमें राम को भजने का अधिकार मिला. इसके साथ ही रामायण के कारण, हमारे पूर्वजों ने पढ़ना-लिखना सीखा. स्कूलों में जाने का अधिकार तो शूद्रों के पास था ही नहीं, ऐसे में रामायण साक्षरता का एक बड़ा कारण बना.”
गुलाराम बताते हैं कि राम का नाम लेने के कारण उनके पूर्वजों को अदालत तक के चक्कर लगाने पड़े. आरोप था उनके द्वारा राम का नाम लेने से, राम का नाम अपवित्र हो रहा है.
गुलाराम का कहना है कि हमारे लोगों ने अदालत में तर्क दिया कि हम जिस राम को जपते हैं, वह अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम नहीं, बल्कि वो राम है, जो चर-अचर सबमें व्याप्त है. हमारा सगुण राम से कोई लेना-देना नहीं है.
रायपुर के सेशन जज ने अंततः 12 अक्टूबर 1912 को फ़ैसला सुनाया कि रामनामी ना तो किसी के मंदिर में प्रवेश कर रहे हैं और ना ही हिंदू प्रतीकों की पूजा कर रहे हैं.
ऐसे में उन्हें अपने धार्मिक कामों से नहीं रोका जा सकता. इसके अलावा रामनामियों के मेले में सुरक्षा व्यवस्था के भी निर्देश बाद में जारी किए गए.
गुलाराम कहते हैं,“हमारी मान्यता है कि जब दशरथ पुत्र राम ने जन्म नहीं लिया था, तब भी राम तो थे ही. वो एक निर्गुण राम थे. हमने भी अपने शरीर को मंदिर बना लिया है. हमने भी चार वेद, छह शास्त्र, नौ व्याकरण और अठारह पुराण पढ़े हैं. लेकिन इन सबका सार राम-राम ही हमारे लिए महत्वपूर्ण है.”
रामनामी समाज में पंडित या महंत की परंपरा नहीं है. इस समाज में मंदिर या मूर्ति पूजा का भी की स्थान नहीं है. समाज में गुरु-शिष्य परंपरा भी नहीं है. यहां तक कि भजन जैसे आयोजनों में भी स्त्री-पुरुष भेद नहीं है.
रामनामी समाज के एक बुजुर्ग बताते हैं कि उनके समाज में कुछ दशक पहले राम रसिक गीता भी लिखी गई थी. लेकिन बात राम-राम पर अटक गई और उनके समाज में ही यह गीता चलन से बाहर हो गई.
वे कहते हैं, “हम अपने भजनों में मानस या रामायण भी पढ़ते हैं लेकिन उसके बहुत सारे हिस्सों से हम सहमत नहीं हैं. हमारी दिलचस्पी कथानक में नहीं है. हम बालकांड में नाम महात्म और उत्तरकांड में दीपकसागर, इसलिए गाते हैं क्योंकि उसमें राम के नाम का महत्व दर्शाया गया है.”
दूर हो रही नई पीढ़ी
रामनामियों में पूरे शरीर पर गोदना कराने की परंपरा धीरे-धीरे कम होती जा रही है. पूरे शरीर पर गोदना करवाने में लगभग एक महीने का समय लग जाता है.
पूरे शरीर पर गोदना करवाने वालों को ‘नख शिख’ कहा जाता है. गोदना का यह काम भी रामनामी समाज के लोग ही करते हैं.
नई पीढ़ी भजन में तो शामिल होती है लेकिन गोदना नहीं कराना चाहती.
एक नौजवान रामजतन कहते हैं,“पहले लोग खेती-किसानी पर आश्रित थे तो उन्हें गोदना से फ़र्क नहीं पड़ता था. अब नई पीढ़ी को कमाने-खाने, नौकरी करने के लिए बाहर जाना होता है. ऐसे गोदना भरे शरीर के साथ काम करना मुश्किल है. इसके अलावा कई नौकरियों में तो गोदना प्रतिबंधित है. यही कारण है कि नई पीढ़ी गोदना से बचती है.”
हालांकि गोदना करवाने या नहीं करवाने वाले में कोई सामाजिक भेदभाव नहीं बरता जाता. आचरण की शुद्धता और राम-राम के प्रति श्रद्धा को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है.
लेकिन सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में सक्रियता को लेकर समाज के भीतर कोई उत्साह हो, ऐसा नज़र नहीं आता.
रामनामी समाज के कुंजराम ने 1967 के चुनाव में सारंगढ़ से जीत हासिल की थी. कांग्रेस प्रत्याशी कुंजराम को 19094 वोट मिले थे, जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी जनसंघ के कंठाराम को महज 2601 वोट मिले थे.
दोनों के बीच हार-जीत का अंतर 67.23 फ़ीसदी वोटों का था, जो आज भी एक रिकार्ड है. लेकिन कुंजराम के बाद, रामनामी समाज के कम ही लोगों ने राजनीति में हाथ आजमाया.
फ़िलहाल तो रामनामी समाज अपनी उस धारा में बह रहा है, जिसमें जीवन का सार केवल राम नाम है और जिसके हिस्से के राम, अयोध्या के राम नहीं हैं.