रतन टाटा: सादगी की मिसाल और दिखावे से दूर रहने वाले शख़्स की पूरी कहानी
वो अकेले वीआईपी थे जो अकेले चलते थे. उनके साथ उनका बैग और फ़ाइलें उठाने के लिए कोई असिस्टेंट नहीं होता था….
10 अक्टूबर 2024
सन 1992 में इंडियन एयरलाइंस के कर्मचारियों के बीच एक अद्भुत सर्वेक्षण करवाया गया.
उनसे पूछा गया कि दिल्ली से मुंबई की उड़ान के दौरान ऐसा कौन सा यात्री है जिसने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया है? सबसे अधिक वोट रतन टाटा को मिले.
जब इसका कारण ढूंढने की कोशिश की गई तो पता चला कि वो अकेले वीआईपी थे जो अकेले चलते थे. उनके साथ उनका बैग और फ़ाइलें उठाने के लिए कोई असिस्टेंट नहीं होता था.
जहाज़ के उड़ान भरते ही वो चुपचाप अपना काम शुरू कर देते थे. उनकी आदत थी कि वो बहुत कम चीनी के साथ एक ब्लैक कॉफ़ी माँगते थे.
उन्होंने कभी भी अपनी पसंद की कॉफ़ी न मिलने पर फ़्लाइट अटेंडेंट को डाँटा नहीं था. रतन टाटा की सादगी के अनेक क़िस्से मशहूर हैं.
गिरीश कुबेर टाटा समूह पर चर्चित किताब ‘द टाटाज़ हाउ अ फ़ैमिली बिल्ट अ बिज़नेज़ एंड अ नेशन’ में लिखते हैं, ”जब वो टाटा संस के प्रमुख बने तो वो जेआरडी के कमरे में नहीं बैठे. उन्होंने अपने बैठने के लिए एक साधारण सा छोटा कमरा बनवाया. जब वो किसी जूनियर अफ़सर से बात कर रहे होते थे और उस दौरान कोई वरिष्ठ अधिकारी आ जाए तो वो उसे इंतज़ार करने के लिए कहते थे. उनके पास दो जर्मन शैफ़र्ड कुत्ते होते थे ‘टीटो’ और ‘टैंगो’ जिन्हें वो बेइंतहा प्यार करते थे.”
”कुत्तों से उनका प्यार इस हद तक था कि जब भी वो अपने दफ़्तर बॉम्बे हाउस पहुंचते थे, सड़क के आवारा कुत्ते उन्हें घेर लेते थे और उनके साथ लिफ़्ट तक जाते थे. इन कुत्त्तों को अक्सर बॉम्बे हाउस की लॉबी में टहलते देखा जाता था जबकि मनुष्यों को वहाँ प्रवेश की अनुमति तभी दी जाती थी, जब वो स्टाफ़ के सदस्य हों या उनके पास मिलने की पूर्व अनुमति हो.”
‘टीटो’ और ‘टैंगो’ रतन टाटा के बहुत क़रीबी थे
कुत्ते की बीमारी
जब रतन के पूर्व सहायक आर वैंकटरमणन से उनके बॉस से उनकी निकटता के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था, “मिस्टर टाटा को बहुत कम लोग करीब से जानते हैं. हाँ दो लोग हैं जो उनके बहुत करीब हैं, ‘टीटो’ और ‘टैंगो’, उनके जर्मन शैफ़र्ड कुत्ते. इनके अलावा कोई उनके आसपास भी नहीं आ सकता.”
मशहूर व्यवसायी और लेखक सुहेल सेठ भी एक किस्सा सुनाते हैं, “6 फ़रवरी, 2018 को ब्रिटेन के राजकुमार चार्ल्स को बकिंघम पैलेस में रतन टाटा को परोपकारिता के लिए ‘रौकफ़ेलर फ़ाउंडेशन लाइफ़टाइम अचीवमेंट’ पुरस्कार देना था. लेकिन समारोह से कुछ घंटे पहले रतन टाटा ने आयोजकों को सूचित किया कि वो वहाँ नहीं आ सकते क्योंकि उनका कुत्ता टीटो अचानक बीमार हो गया है. जब चार्ल्स को ये कहानी बताई गई तो उन्होंने कहा ये असली मर्द की पहचान है.”
रतन टाटा अक्सर चिढ़ जाते थे अगर कोई दफ़्तर से संबंधित काम के लिए उनसे घर पर संपर्क करता था.
एकाकी और दिखावे से कहीं दूर थे रतन टाटा
जेआरडी की तरह रतन टाटा को भी उनकी वक्त की पाबंदी के लिए जाना जाता था. वो ठीक साढ़े छह बजे अपना दफ़्तर छोड़ देते थे.
वो अक्सर चिढ़ जाते थे अगर कोई दफ़्तर से संबंधित काम के लिए उनसे घर पर संपर्क करता था. वो घर के एकाँत में फ़ाइलें और दूसरे काग़ज़ पढ़ा करते थे.
अगर वो मुंबई में होते थे तो वो अपना सप्ताहाँत अलीबाग के अपने फार्म हाउस में बिताते थे. उस दौरान उनके साथ कोई नहीं होता था सिवाए उनके कुत्तों के. उनको न तो घूमने का शौक था और न ही भाषण देने का. उनको दिखावे से चिढ़ थी.
बचपन में जब परिवार की रोल्स-रॉयस कार उन्हें स्कूल छोड़ती थी तो वो असहज हो जाते थे. रतन टाटा को नज़दीक से जानने वालों का कहना है कि ज़िद्दी स्वभाव रतन की ख़ानदानी विशेषता थी जो उन्हें जेआरडी और अपने पिता नवल टाटा से मिली थी.
सुहेल सेठ कहते हैं, “अगर आप उनके सिर पर बंदूक भी रख दें, तब भी वो कहेंगे, मुझे गोली मार दो लेकिन मैं रास्ते से नहीं हटूँगा.”
अपने पुराने दोस्त के बारे में बॉम्बे डाइंग के प्रमुख नुस्ली वाडिया ने बताया, “रतन एक बहुत ही जटिल चरित्र हैं. मुझे नहीं लगता कि कभी किसी ने उन्हें पूर्ण रूप से जाना है. वो बहुत गहराइयों वाले शख़्स हैं. निकटता होने के बावजूद मेरे और रतन के बीच कभी भी व्यक्तिगत संबंध नहीं रहे. वो बिल्कुल एकाकी हैं.”
कूमी कपूर अपनी किताब ‘एन इंटिमेट हिस्ट्री ऑफ़ पारसीज़’ में लिखती हैं, “रतन ने मुझसे खुद स्वीकार किया था कि वो अपनी निजता को बहुत महत्व देते हैं. वो कहते थे शायद मैं बहुत मिलनसार नहीं हूँ, लेकिन असामाजिक भी नहीं थे
कॉर्नेल विश्वविद्यालय से उन्होंने स्थापत्य कला और इंजीनियरिंग की डिग्री ली
रतन की दादी नवाज़बाई टाटा ने उन्हें पाला
टाटा की जवानी के उनके एक दोस्त याद करते हैं कि टाटा समूह के अपने शुरुआती दिनों में रतन को अपना सरनेम एक बोझ लगता था.
अमेरिका में पढ़ाई के दौरान ज़रूर वो बेफ़िक्र रहते थे क्योंकि उनके सहपाठियों को उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पता नहीं होता था.
रतन टाटा ने कूमी कपूर को दिए इंटरव्यू में स्वीकार किया था, “उन दिनों विदेश में पढ़ने के लिए रिज़र्व बैंक बहुत कम विदेशी मुद्रा इस्तेमाल करने की अनुमति देता था. मेरे पिता क़ानून तोड़ने के हक़ में नहीं थे इसलिए वो मेरे लिए ब्लैक में डॉलर नहीं ख़रीदते थे. इसलिए अक्सर होता था कि महीना ख़त्म होने से पहले मेरे सारे पैसे ख़त्म हो जाते थे. कभी कभी मुझे अपने दोस्तों से पैसे उधार लेने पड़ते थे. कई बार तो कुछ अतिरिक्त पैसे कमाने के लिए मैंने बर्तन तक धोए.”
रतन सिर्फ़ 10 साल के थे जब उनके माता-पिता के बीच तलाक़ हो गया. जब रतन 18 वर्ष के हुए तो उनके पिता ने एक स्विस महिला सिमोन दुनोयर से शादी कर ली.
उधर उनकी माता ने तलाक़ के बाद सर जमसेतजी जीजीभॉय से विवाह कर लिया. रतन को उनकी दादी लेडी नवाज़बाई टाटा ने पाला.
रतन अमेरिका में सात साल रहे. वहाँ कॉर्नेल विश्वविद्यालय से उन्होंने स्थापत्य कला और इंजीनियरिंग की डिग्री ली. लॉस एंजिलिस में उनके पास एक अच्छी नौकरी और शानदार घर था. लेकिन उन्हें अपनी दादी और जेआरडी के कहने पर भारत लौटना पड़ा.
इस वजह से उनकी अमेरिकी गर्लफ़्रेंड के साथ उनका रिश्ता आगे नहीं बढ़ सका. रतन टाटा ताउम्र अविवाहित रहे.
जेआरडी ने उन्हें बीमार कंपनियों को सुधारने की ज़िम्मेदारी सौंपी
साधारण मज़दूर की तरह नीला ओवरऑल पहनकर करियर की शुरुआत
सन 1962 में रतन टाटा ने जमशेदपुर में टाटा स्टील में काम करना शुरू किया.
गिरीश कुबेर लिखते हैं, “रतन जमशेदपुर में छह साल तक रहे जहाँ शुरू में उन्होंने एक शॉपफ़्लोर मज़दूर की तरह नीला ओवरऑल पहनकर अप्रेंटिसशिप की. इसके बाद उन्हें प्रोजेक्ट मैनेजर बना दिया गया. इसके बाद वो प्रबंध निदेशक एसके नानावटी के विशेष सहायक हो गए. उनकी कड़ी मेहनत की ख्याति बंबई तक पहुंची और जेआरडी टाटा ने उन्हें बंबई बुला लिया.”
इसके बाद उन्होंने ऑस्ट्रेलिया में एक साल तक काम किया. जेआरडी ने उन्हें बीमार कंपनियों सेंट्रल इंडिया मिल और नेल्को को सुधारने की ज़िम्मेदारी सौंपी.
रतन के नेतृत्व में तीन सालों के अंदर नेल्को (नेशनल रेडियो एंड इलेक्ट्रॉनिक्स) की काया पलट हो गई और उसने लाभ कमाना शुरू कर दिया. सन 1981 में जेआरडी ने रतन को टाटा इंडस्ट्रीज़ का प्रमुख बना दिया.
हालांकि इस कंपनी का टर्नओवर मात्र 60 लाख था लेकिन इस ज़िम्मेदारी का महत्व इसलिए था क्योंकि इससे पहले टाटा खुद सीधे तौर पर इस कंपनी का कामकाज देखते थे.
कूमी कपूर लिखती हैं- अधिकाँश भारतीय अरबपतियों की तुलना में रतन की जीवनशैली बहुत नियंत्रित और सादगी भरी थी
सादगी भरी जीवनशैली
उस ज़माने के बिज़नेस पत्रकार और रतन के दोस्त उन्हें एक मिलनसार, बिना नख़रे वाले सभ्य और दिलचस्प शख़्स के तौर पर याद करते हैं. कोई भी उनसे मिल सकता था और वो अपना फ़ोन खुद उठाया करते थे.
कूमी कपूर लिखती हैं, “अधिकाँश भारतीय अरबपतियों की तुलना में रतन की जीवनशैली बहुत नियंत्रित और सादगी भरी थी. उनके एक बिज़नेस सलाहकार ने मुझे बताया था कि वो हैरान थे कि उनके यहाँ सचिवों की भीड़ नहीं थी.”
“एक बार मैंने उनके घर की घंटी बजाई तो एक छोटे लड़के ने दरवाज़ा खोला. वहाँ कोई वर्दी पहने नौकर और आडंबर नहीं था. कुंबला हिल्स पर मुकेश अंबानी की 27 मंज़िला एंटिलिया की चकाचौंध के ठीक विपरीत कोलाबा में समुद्र की तरफ़ देखता हुआ उनका घर उनके अभिजात्यपन और रुचि को दर्शाता है.”
जेआरडी ने चुना अपना उत्तराधिकारी
जब जेआरडी 75 साल के हुए तो इस बात की बहुत अटकलें लगाई जाने लगीं कि उनका उत्तराधिकारी कौन होगा.
टाटा के जीवनीकार केएम लाला लिखते हैं कि ‘जेआरडी… नानी पालखीवाला, रूसी मोदी, शाहरुख़ साबवाला और एचएन सेठना में से किसी एक को अपना उत्तराधिकारी बनाने के बारे में सोच रहे थे. खुद रतन टाटा का मानना था कि इस पद के दो प्रमुख दावेदार पालखीवाला और रूसी मोदी होंगे.’
सन 1991 में जेआरडी ने 86 वर्ष की आयु में अध्यक्ष पद छोड़ दिया. इस बिंदु पर उन्होंने रतन का रुख़ किया.
जेआरडी का मानना था रतन के पक्ष में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ थी उनका ‘टाटा’ सरनेम होना. टाटा के दोस्त नुसली वाडिया और उनके सहायक शाहरुख़ साबवाला ने भी रतन के नाम की वकालत की थी.
25 मार्च, 1991 को जब रतन टाटा समूह के अध्यक्ष बने तो उनके सामने सबसे पहली चुनौती थी कि समूह के तीन क्षत्रपों दरबारी सेठ, रूसी मोदी और अजीत केरकर को किस तरह कमज़ोर किया जाए.
ये लोग अब तक टाटा की कंपनियों में प्रधान कार्यालय के हस्तक्षेप के बिना काम करते आए थे.
फ़ोर्ड कंपनी के मालिक ने टाटा पर ताना मारा था कि अगर वो ‘इंडिका’ को ख़रीदते हैं तो वो भारतीय कंपनी पर बड़ा उपकार करेंगे. लेकिन 10 साल बाद इसका उलटा हुआ.
टेटली, कोरस और जेगुआर का अधिग्रहण
शुरू में रतन टाटा की व्यावसायिक समझ पर लोगों ने कई सवाल उठाए.
लेकिन सन 2000 में उन्होंने अपने से दोगुने बड़े ब्रिटिश ‘टेटली’ समूह का अधिग्रहण कर लोगों को चकित कर दिया.
आज टाटा की ग्लोबल बेवेरेजेस दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी चाय कंपनी है. इसके बाद उन्होंने यूरोप की दूसरी सबसे बड़ी इस्पात निर्माता कंपनी ‘कोरस’ को खरीदा.
आलोचकों ने इस सौदे की समझदारी पर सवाल उठाए लेकिन टाटा समूह ने इस कंपनी को लेकर एक तरह से अपनी क्षमता का प्रमाण दिया.
सन 2009 के दिल्ली ऑटो एक्सपो में उन्होंने पीपुल्स कार ‘नैनो’ का अनावरण किया जो एक लाख रुपए की कीमत पर उपलब्ध थी.
नैनो से पहले 1998 में टाटा मोटर्स ने ‘इंडिका’ कार बाज़ार में उतारी थी जो भारत में डिज़ाइन की गई पहली कार थी.
शुरू में ये कार असफल रही और रतन ने इसे फ़ोर्ड मोटर कंपनी को बेचने का फ़ैसला किया. जब रतन डिट्रॉएट गए तो बिल फ़ोर्ड ने उनसे पूछा कि उन्होंने इस व्यवसाय के बारे में पर्याप्त जानकारी के बिना इस क्षेत्र में क्यों प्रवेश किया?
उन्होंने टाटा पर ताना मारा कि अगर वो ‘इंडिका’ को ख़रीदते हैं तो वो भारतीय कंपनी पर बड़ा उपकार करेंगे. इस व्यवहार से रतन टाटा की टीम नाराज़ हो गई और बातचीत पूरी किए बिना वहाँ से चली आई.
एक दशक बाद हालात बदल गए और 2008 में फ़ोर्ड कंपनी गहरे वित्तीय संकट में फंस गई और उसने ब्रिटिश विलासिता की ‘जैगुआर’ और ‘लैंडरोवर’ को बेचने का फ़ैसला किया.
कूमी कपूर लिखती हैं, “तब बिल फ़ोर्ड ने स्वीकार किया कि भारतीय कंपनी फ़ोर्ड की लक्ज़री कार कंपनी खरीद कर उस पर बड़ा उपकार करेगी. रतन टाटा ने 2.3 अरब अमेरिकी डॉलर में इन दोनों नामचीन ब्रांड्स का अधिग्रहण किया.”
साल 2009 में जैगुआर लैंड रोवर के सीईओ डेविड स्मिथ के साथ रतन टाटा
जेगुआर को ख़रीदने पर हुई टाटा की आलोचना
लेकिन कुछ व्यापार विश्लेषकों ने रतन टाटा की इन बड़ी ख़रीदारियों पर सवाल भी उठाए.
उनका तर्क था कि रतन के कई महंगे विदेशी अधिग्रहण उनके लिए महंगे सौदे साबित हुए. ‘टाटा स्टील यूरोप’ एक सफ़ेद हाथी साबित हुआ और उसने समूह को भारी कर्ज़ में डुबोया.
टीएन नैनन ने लिखा, रतन के वैश्विक दाँव अक्खड़पन और ख़राब समय का मिश्रण थे.
एक वित्तीय विश्लेषक ने कहा, ‘पिछले दो दशकों में भारतीय व्यापार में सबसे बड़े अवसर दूरसंचार में था, लेकिन रतन ने कम से कम शुरुआत में इसे गँवा दिया.’
मशहूर पत्रकार सुचेता दलाल ने कहा, ‘रतन से ग़लती पर ग़लती हुई. उनका समूह ‘जैगुआर’ को ख़रीदकर वित्तीय बोझ तले दब गया.’ लेकिन ‘टाटा कंसलटेंसी सर्विस’ यानि ‘टीसीएस’ ने हमेशा टाटा समूह को अग्रणी रखा.
इस कंपनी ने वर्ष 2015 में टाटा समूह के शुद्ध लाभ में 60 फ़ीसदी से अधिक का योगदान दिया. सन 2016 में अंबानी की ‘रिलायंस’ से भी आगे किसी भी भारतीय फ़र्म का सबसे बड़ा बाज़ार पूँजीकरण इसी कंपनी का था.
नीरा राडिया, तनिष्क और साइरस मिस्त्री से जुड़े विवाद
सन 2010 में रतन टाटा एक बड़े विवाद में फंसे जब लॉबिस्ट नीरा राडिया के साथ उनकी टेलिफ़ोन बातचीत लीक हो गई.
अक्तूबर, 2020 में टाटा समूह के अपने ज्वेलरी ब्राँड ‘तनिष्क’ द्वारा एक विज्ञापन को जल्दबाज़ी में वापस लिए जाने से भी रतन टाटा की काफ़ी किरकिरी हुई. इस विज्ञापन में सभी धर्मों को बराबर मानने वाले एक समन्वित भारत का मार्मिक चित्रण किया गया था.. इस विज्ञापन को मुखर दक्षिणपंथी ट्रोल्स का सामना करना पड़ा.
आखिर ‘तनिष्क’ को दबाव के चलते वो विज्ञापन वापस लेना पड़ा. कुछ लोगों का मानना था कि अगर जेआरडी जीवित रहते तो वो इस तरह के दबाव में नहीं आते.
रतन उस समय भी सवालों के घेरे में आए जब उन्होंने 24 अक्तूबर, 2016 को टाटा समूह के अध्यक्ष साइरस मिस्त्री को एक घंटे से भी कम समय के नोटिस पर बर्ख़ास्त कर दिया.
,कोविड महामारी फैली तो रतन टाटा ने तत्काल 500 करोड़ रुपए टाटा न्यास से और 1000 करोड़ रुपए टाटा कंपनियों के ज़रिए दिए
टाटा को बनाया भरोसेमंद ब्राँड
लेकिन इस सब के बावजूद रतन टाटा की गिनती हमेशा भारत के सबसे भरोसेमंद उद्योगपतियों में रही.
जब भारत में कोविड महामारी फैली तो रतन टाटा ने तत्काल 500 करोड़ रुपए टाटा न्यास से और 1000 करोड़ रुपए टाटा कंपनियों के माध्यम से महामारी और लॉकडाउन के आर्थिक परिणामों से निपटने के लिए दिए.
ख़ुद को गंभीर जोखिम में डालने वालों डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों के रहने हेतु अपने लक्ज़री होटलों के इस्तेमाल की पेशकश करने वाले पहले शख़्स भी रतन टाटा ही थे.
आज भी भारतीय ट्रक चालक अपने वाहनों के पिछले हिस्से पर ‘ओके टाटा’ लिखवाते हैं ताकि ये पता चल सके कि ये ट्रक टाटा का है, इसलिए भरोसेमंद है.
टाटा के पास एक विशाल वैश्विक फ़ुटप्रिंट भी है. ये ‘जैगुआर’ और ‘लैंडरोवर’ कारों का निर्माण करता है और ‘टाटा कंसलटेंसी सर्विसेज़’ दुनिया की नामी सॉफ़्टवेयर कंपनियों में से एक है.
इन सबको बनाने में रतन टाटा की भूमिका को हमेशा याद रखा जाएगा.
बीबीसी हिंदी